Saturday, June 8, 2024

अष्टावक्र : भारतीय ज्ञान परंपरा का प्रथम शारीरिक चुनौती का सामना करता महर्षि : रंगमंच की अष्टावक्री अवस्था का एक दर्शन


भारतीय मिथकीय परंपरा ने ज्ञान की महिमा का मान सदा ही सर्वोपरि रखा है 
जीवन के हर रूप को सहज ही स्वीकार कर उसकी प्रतिष्ठा का जो उपाय सनातन है 
वह है ज्ञान
वह ज्ञान जो  संसार के सभी समायोजन को सूत्रों में समाहित कर आगामी पीढ़ी को 
संवर्धन के निमित्त सौंपता है 
ज्ञान को ग्रहण और उसको प्रकट करने का प्रसंग 
अरूप, आभासी, सूक्ष्म जीवात्मा से लेकर देहधारियों के रूपक में आख्यानों के माध्यम से कही जाती रही है 
जिसने भाष्य सुना उसने उसका मनन किया
चिंतन किया 
समकालीन जगत के लिए व्यवहारिक बना कर 
नवीन चेतना के साथ सुनाया ,
गाया – दिखाया 
हमारे मिथकीय चरित्रों में अष्टावक्र संभवतः प्रथम ऐसा चरित्र है 
जो शारीरिक चुनौतियों का  सामना करने वाला महात्मा है 
जो ज्ञान से संसार को जीतता है
अष्टावक्र का शाब्दिक अर्थ है आठ जगह से  वक्र या टेढ़ा होना 

आधार कथा 
अष्टावक्र की जीवन गाथा भारतीय पुराणों और महाभारत में वर्णित एक प्रेरणादायक कथा है। यह कथा उनके असाधारण ज्ञान, धैर्य और योग्यता को दर्शाती है। 

अष्टावक्र का जन्म ऋषि काहोड और उनकी पत्नी सुजाता के घर हुआ था। जब अष्टावक्र अपनी माँ के गर्भ में थे, उनके पिता काहोड एक दिन वेदों का उच्चारण कर रहे थे। गर्भ में ही अष्टावक्र ने अपने पिता के उच्चारण में कुछ त्रुटियों को सुधारने की कोशिश की। काहोड इस हस्तक्षेप से क्रोधित हो गए और उन्होंने अपने पुत्र को श्राप दे दिया कि वह जन्म के समय आठ स्थानों से टेढ़ा होगा। इसी कारण उनका नाम अष्टावक्र पड़ा।

अष्टावक्र का प्रारंभिक जीवन शारीरिक विकारों के बावजूद अद्वितीय था। वे अत्यंत बुद्धिमान और ज्ञानवान थे। अपने पिता काहोड को श्रापमुक्त करने और उनके खोए हुए सम्मान को पुनः प्राप्त करने के उद्देश्य से अष्टावक्र ने राजा जनक के दरबार में प्रवेश किया। 

राजा जनक ज्ञान और तत्वचिंतन के लिए प्रसिद्ध थे। अष्टावक्र ने जनक के दरबार में प्रवेश कर एक महान दार्शनिक वाद-विवाद में भाग लिया। अपनी गहरी अंतर्दृष्टि और आत्मज्ञान से अष्टावक्र ने सभी विद्वानों को पराजित किया और राजा जनक को अद्वैत वेदांत के गूढ़ सिद्धांतों से परिचित कराया। 

राजा जनक के साथ अष्टावक्र के संवाद "अष्टावक्र गीता" के रूप में संकलित हैं। यह ग्रंथ अद्वैत वेदांत के महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। इसमें आत्म-ज्ञान, मुक्ति और अद्वैत दर्शन पर गहन चर्चा की गई है। यह गीता अष्टावक्र की जीवन-दर्शन और उनकी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि का प्रतिबिंब है।

अष्टावक्र का जीवन एक प्रेरणादायक उदाहरण है कि कैसे शारीरिक विकलांगता को दरकिनार करते हुए भी महानता प्राप्त की जा सकती है। उनका जीवन और शिक्षाएँ आज भी हमें जीवन के गहरे रहस्यों और आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करती हैं।

वर्ण में बंटे सामाज में, असमानता के बीच संघर्ष करते समाज में
भ्रूण में पांडित्य का/ विशेष विद्या का स्थानांतरण–स्थापन करने का विशेष प्रसंग 
कई आते हैं 
कहना तो यही है 
पूर्वजन्म का फल लेकर हम जीवन धारण करते हैं 
कर्म से अगला जन्म निर्धारित करते हैं 
सो हर कथा काल से काल तक की है 
अष्टावक्र की कथा के विविध प्रचलित प्रसंग हैं जो 
उनके द्वारा रचित अष्टावक्र गीता के आलोक में उन्हें 
परम ज्ञानी, महात्मा, महर्षि, ब्रह्म ज्ञानी की महिमा से मंडित करते हैं 

अष्टावक्र के प्रचलित प्रसंगों से विद्या अभ्यासियों की अवस्था, द्वंद और पलायन के उदाहरणों को
अपनी कल्पना के साथ संयोजित कर
समकालीन चेतना के साथ नाटककार ब्रजेंद्रशाह ने "अष्टावक्र” नाम एक सुखांत नाटक लिखा है
कई कुछ रचने में लेखक ने अपने निहित उद्देश्यों को भी 
नाटक में समाहित किया है 

इस सुखांत नाटक का आरंभिक भाग प्रलाप है 
एक एक वेदाभ्यासी स्त्री सुजाता का प्रलाप!
जो दरिद्रता के क्षोभ में उलाहना देते हुए 
गर्भस्थ भ्रूण के निमित्त अपने पति को वेद विवेचन छोड़ कर 
धनार्जन के लिए प्रवृत्त होने की गुहार लगाती है
उलाहना से लज्जीत व विचलित पति कहोड़, 
विद्या के प्रदर्शन से धनार्जन के लिए निकल पड़ता है
राजा जनक की सभा में ज्ञान की प्रतिस्पर्धा करने 

समकालीन स्थिति आज भी ऐसी ही है
प्रतिभाओं का पलायन नियति है, पलायन सुदूर देशों तक है 
जहां वे मूल्यबद्ध श्रमिक में बंदी हो जाते हैं
अपने देश–दंपति –भावजगत से विलग, गुम हो जाते हैं 
अलोप!

प्रथम दृश्य संवाद और भावनात्मक एकरसता के कारण बोझिल लगता है
अष्टावक्र के रूपक के लिए आरंभिक गीत भी नाटक के बुनावट से बेमेल सा लगता है
एक परंपरा के निर्वहन मात्र का अभ्योजन!

अष्टावक्र, एक ज्ञानालोकित भ्रूण का प्रतिरूप है
उनके बारे में ये विदित है कि भ्रूणावस्था में ही वे वेदों को ग्रहण कर चुके थे 
वेदाध्यायी माता पिता के वेदचर्चा –विवेचन के मध्य 
अष्टावक्र ने आठ बार पिता के भाष्य की त्रुटियां को ठीक करने का साहस किया 
इससे क्रुद्ध पिता कहोड़ (कहोल) ने उग्र शाप दिया 
तू आठ वक्रता से ग्रस्त जन्म लेगा 
नाटककार ने इस प्रचलित प्रसंग को अपने रूपक में स्थान नहीं दिया है 

नाटक में आगे के प्रसंगों में 
अपने पिता के अस्तित्व से अनभिज्ञ उग्र वेदाभ्यासी अष्टावक्र को
एक दिन पिता का सत्य का उद्घाटित होता है
अष्टावक्र नियति को चुनौती देने राजा जनक की सभा में जा 
विद्वान बंदी को शास्त्रार्थ में पराजित करता है
शास्त्रार्थ के विधानों के अनुरूप जीवनलीला समाप्त ना करने का विधान उलट कर 
बंदी को जीवनदान देता है
कृतज्ञ पराजित बंदी यह रहस्य उद्घाटित करता है कि 
अष्टावक्र के पिता और उससे शास्त्रार्थ में पराजित सभी विद्वान उसके मूल राज्य की सेवा में 
अध्ययन–शोध कर रहे श्रमिक हैं
बंदी, अष्टावक्र को भी उनके साथ उनके राज्य के लिए
ससम्मान कार्य करने का निमंत्रण देता है
वह उसकी विकृति को दूर करने का भी प्रस्ताव भी निवेदित करता है 

अष्टावक्र अपनी विशिष्ट शारीरिक अवस्था को शाप न मानकर 
पिता को पा अपने आश्रम लौटना सुनिश्चित करता है और नाटक का समापन हो जाता है

हालांकि प्रचलित किंवदंतियां ये भी है कि 
अष्टावक्र के पिता समंगा नदी में स्नान करने के उपरांत 
अपने तपोबल से उसकी वक्रता दूर कर देते हैं 
लेखक इस प्रसंग को ना लेकर 
अष्टावक्र से अपनी विशेष अवस्था को प्रतिष्ठापित करने का निश्चय कराते हैं 
उसे समकालीन विशेष चुनौतियों का सामना कर रहे लोगों के लिए 
एक अनुकरणीय उदाहरण के रूप प्रस्तुत करते हैं. 

नाटक की प्रस्तुति रंगमंच के आर्थिक चुनौतियों से भी रुबरु कराती है 
जोगाड़ के बीच रंग अनुभव
अपनी जीवंत देहदशा के साथ उपस्थित होता है
एक बड़ी मंचन मंडली को निर्देशक वशिष्ठ उपाध्याय कुशलता से
सफ़ल भाष्य के साथ प्रस्तुत करते हैं
नाटक के वाद–विवाद को रोचक बनाते हुए 
निहित ज्ञान को समष्टि की अनुभूति में तब्दील कर डालते हैं 
सहृदय दर्शक, बंधु –बांधव के आनंद का आयोजन सम्पन्न होता है 

जाते –जाते:
दिल्ली में प्रायः सभी प्रेक्षागृह 
एक निष्ठुर बनियागिरी के असांस्कृतिक अभियोजन अनुभव करवाते है
वे रंगमंच का अधिकतम आर्थिक मान को डकार कर 
रंगकर्म की अवस्था का अष्टावक्री उपहास उड़ाते प्रतीत होते हैं 
ये स्तिथि शोचनीय है, 
रंगमंच जैसी लोकतांत्रिक विधा के लिए शाप की तरह,
असांस्कृतिक!














1 comment:

  1. दिल्ली में प्रायः सभी प्रेक्षागृह
    एक निष्ठुर बनियामंडली के असांस्कृतिक अभियोजन अनुभव करवाते है
    जो रंगमंच का अधिकतम आर्थिक मान डकार कर
    रंगकर्म की अष्टावक्री अवस्था का उपहास उड़ाते हैं

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