रंगमंच मूलतः एक परिवर्तनशील
हमेशा बदलते रहने वाली जीवंत कलात्मक दक्षता का कला-अनुभव है
क्या बदलना है इसकी छ्टपटाहत रंगमंच सृजन के केंद्र में रहता है
स्वाद बदलना है, अर्थ बदलना है
कथा क्रम बदलना है, शैली बदलनी है
लोकेशन ही बदलना है
या फिर बहुत-बहुत कुछ एक साथ बदलना है
इतना कि असल में ये क्या था
कहाँ से शुरू हुआ पता ही ना चले
बदलना तो है
नियम तो यही कहता है
बुद्ध ने भी कहा
परिवर्तन संसार का नियम है
सहज नियम !
रंगमंच वही नहीं रहता जब हम इसे करने की अवस्था में आते हैं
यह तब तक बदल चूका होता है
इसके होने
सृजन का आधार हो सकता है वही नाटक हो, वही आलेख हो
पर जो सृजित होगा उसे तो परिवर्तित होना ही होगा
नहीं तो आप अपने को ही ठगा सा पायेंगे
जो पीड़ादायक नहीं होगा तो
बेवकूफीपना तो होगा ही
कल जब हमें कुछ अच्छा रंग अनुभव होता है और उसे हम उसी अनुभूति के साथ
उसी रंग-रूप में करना
या दुहराना चाहते हैं तो हमें संभव होता सा नहीं दीखता
रंगमंच तब खूब जमता था
जब परदे के आगे जोर-शोर से होता था
टिकट लगता था
या पास लेना पड़ता था
जो जितना आगे बैठता उतना ज्यादा आनंद की प्राप्ति का पात्र माना जाता था
हॉल तो हमारे समय में 70 के दशक में आ चुके थे
सो हमारे देखने के लिए रंगमंच की घटना
सामने से देखी जाने वाली घटना रही
फिर शहर में देखा कि लोगबाग़ चौराहे पर भी
नाटक खेल रहे हैं
मदारी के तमाशे की तरह मजमा देख कर मदारी का जादू देखने के लोभ में
भीड़ में घुस जतन कर सबसे आगे बैठ गया
जादू तो क्या होता
मदारी जमूरे ने जीवन में आस-पास दिखने वाले कई चरित्रों को सामने दिखा दिया
पता चला ये नुक्कड़ नाटक है
जिसे चारों और से देखा जा रहा है
बिना कुर्सी के
बिना लाइट, बिना साउंड के सिस्टम के
ये भी खूब था
सुना सोनपुर के मेले में नौटंकी जमता है
गया !
दिन भर नस्ल-नस्ल के जानवरों को देखता रहा
नदी के किनारे रेत पर छपता रहा अपने पैरों के निशान
रात में होगी नौटंकी
दिन गुज़रा
बिना टिकट के तो अन्दर जा नहीं सकते
टिकट लिया
नौटंकी सुल्ताना डाकू !
दे नाच ! दे गाना !
टेंट के बने पंडाल में कुर्सी
दरी , पुआल पर बैठे दर्शक
क्या मज़े कर रहे थे ? क्यूँ सिटी बजा रहे थे ?
....
आखिरकार !
छोटा से नाटक का अभिनय
जिसे सुल्ताना डाकू कहा गया
शरीर ऐंठ महसूस कर रहा था
जम्हाई आ रही थी
सुबह ने भी दस्तक दी
शाल में लिपटे देह को सीधा कर
वातावरण के ठण्ड को चिपकने की इजाजत दी
आखरी चमकीला-भड़कीला नाच ख़त्म हो चुका था
मंच की रौशनी बुझ चुकी थी
उदास ट्यूब लाइट सूरज के नीम उजाले से हारा हुआ युद्ध लड़ रहे थे
हम भी बाहर निकले
पशुओं के लीद की विविध गंधों के सागर में उतराते
मुख्य सड़क पर आकर तिपहिया पकड़
नाववाले पुल के पास पहुंचे
गंगा पार किया
अपने-अपने डेरे आ गए
चादर तानी
बिस्तर पर घेरी गई हवा में गर्माहट आई
अधमुंदे ख्यालात के कई ट्रेलर चलने लगे
सो गए
दोपहर ढलते उठे और तैयार होकर निकल पड़े सोहबत में रंग-अभ्यासियों के
सुनाने किस्सा के हमने भी देखी नौटंकी
ये तो कुछ और ही होता है
जो सुना था उससे बिलकुल अलग
पर जो हो अनुभव अच्छा था
...
रात रिहर्सल के बाद कालिदास रंगालय के बाहर अड्डा जमाना रोजनामचा था
कालिदास रंगालय में होता यूँ है
हम हाल में एक सीट खोजकर बैठ जाते हैं
सभी एक ही दिशा में देखते हैं
अपनी अधूरी गप्प को पूरी करते हुए
इधर-उधर यहाँ-वहां की बाते करते हुए
वातावरण को जीवंत बनाए रखते हैं
मंच का पर्दा बंद होता है
अक्सरहां नाटक मंडलियाँ अपने किसी प्रिय अतिथि का इंतज़ार करती हैं
वह आ जाए तो घोषणा शुरू हो जाती है
दर्शक दीर्घ की बत्तियां बुझने लगती है
छात्र-पटर थम जाता है
चुप्पी हो जाती है
मंच का पर्दा दायें-बाएं खिसक जाता है
पुली मशीन की आवाज़ बंद होती है
मंच पर रौशनी आती है और एक दृश्य सामने
ये दृश्य इसी मंच पर कल किसी घर का ड्राइंग रूम था
किसी बगिचे का हिस्सा
कोई जंगल का भाग
किसी महल का हिस्सा
किसी और ग्रह का अनुमान
किसी बड़ी घड़ी का अन्तर्भाग तो किसी झोपड़े का आँगन
मंच पर वास्तविक घटना स्थल को बनाने की कोशिश हो सकती है
पर कितना भी हुबहू होने का अहसास करवाए
वह होगा एक रचनात्मक अनुमान
उपमान या फिर संकेत समन्वय !
जो भी होता है मंच पर
उसके वातावरण में अभिनेता प्रवेश करता है
कभी उस वातावरण में रचा-बसा तो कभी उस वातावरण पर आच्छादित
अभिनेता-सहभिनेता आपस में बातचीत करते हैं
उनकी भाषा अमूमन वही होती है जो हम बोलते-समझते हैं
हम भी वहीँ होते हैं पर ये अभिनेता हमें नज़रंदाज़ कर देते हैं
वो यदा-कदा ही हमसे मुखातिब होते हैं
पता नहीं क्या होता है
ऐसा लगता है जैसे मंच के सामने की सीमा रेखा पर एक ऐसा दीवाल खड़ा होता है
जिसके एक तरफ से मात्र दर्शक ही देख पाता है
अभिनेता मंच की और से नहीं देख पाता
कुछ कार और घरों की खिडकियों पर ऐसे शीशे लगे होते हैं
जो अन्दर से बाहर तो देख लेते हैं
पर बाहर वाला अन्दर नहीं देख पाता
हाल खाली होने पर एक दो बार मैंने
मंच के किनारे, परदे की रेखा में अपने हाथों से उस अदृश्य दीवार को,
कथित चौथी दीवार को टटोलना चाहा
पर वो हो तब न मिले
पर रंचमंच के धुरंधरों की संगत में
मैंने भी उस दीवार को मान लिया कि वह होती है
पर्दा उठता है
ख़ामोशी छा जाती है , मंच पर रौशनी आती है
मंच के दृश्य पटल पर एक अभिनेता प्रवेश करता है
वह एक दुनियां में जीता है
किसी जगह विशिष्ट काल में
हमें अपनी जगह और समय को छोड़ कर
अभिनेता के काल और जगह को अपनाना पड़ता है
हम अपनी मर्ज़ी से नाट्य के काल और जगह को अपना लेते हैं
एक पर्यवेक्षक बन जाते हैं
21वीं सदी के तीसरे दशक के क़रीब का ये अनुभव
रंगमंच का परंपरागत अनुभव है
तमाम प्रयोगधर्मी, नवाचार वाले रंग-सृजन के बीच
यह अनुभव वैसा का वैसा ही है
हमारी अपेक्षाएं वही हैं
हम पर्यवेक्षक बन कर अपने सामने एक सृजित जीवंत कलात्मक संयोजन को समर्पित होते हैं
सुनते, देखते, गुनते और अपने विचार बनाते हैं.
प्रस्तुति के अनुभव को नवीनता के आस्वादन से भरने के लिए
कथा, प्रसंग, अभिनेता, दृश्य, काव्य, संवाद, कला और दक्षता के
परम्परागत, लोकप्रिय व रचनात्मक संयोजन के माध्यम से
सच, बिम्ब और उपमा का खेल जमता है
सत्य, अर्धसत्य, आभासी सत्य, कल्पित सत्य के भावनात्मक प्रसंग को
स्वर, भाव, भाषा के जरिये संप्रेषित किया जाता है
स्वीकृति, सन्दर्भ और समावेशीकरण के लिए .
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